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*वो काली रात औऱ चीख़ता भोपाल ...?*
*वो काली रात औऱ चीख़ता भोपाल ...?*
दो और तीन दिसंबर की दरमियानी रात भारत की आत्मा पर लगा वह दाग है, जिसका रंग आज तक फीका नहीं हुआ। फर्क बस इतना है कि जनता के खून में उबलता दर्द अब सियासत के ड्राइ-क्लीनर से बार-बार धोकर साफ दिखाया जाता है, ताकि लगे कि सब ठीक है। भोपाल की त्रासदी को इस देश ने कभी सच्चे अर्थों में समझा नहीं सरकारों ने इसे हमेशा एक “पुराना विषय”, एक “दुर्भाग्यपूर्ण घटना”, या एक “मुआवजा-योग्य हादसा” की तरह संभाला। जैसे किसी की जिंदगी का मूल्य सरकारी फाइलों के पन्नों की तरह पलटकर तय किया जा सकता हो।
उस काली रात में मौत ने कोई भेदभाव नहीं किया था, पर सरकारों ने बाद में हर तरह का भेदभाव कर लिया जिम्मेदारी में, कार्रवाई में, इंसाफ में, और उपचार में। जिन्होंने अपनी गलती छुपाई, वे बच गए; जिन्होंने गलती नहीं की, वे मारे गए; और जिन्होंने सब देखा, वे आज भी सांसों पर भरोसा करते हुए जी रहे हैं।
भोपाल की वह रात सिर्फ त्रासदी नहीं, बल्कि सत्ता का पहला और सबसे खुला सबक था कि यहाँ “मानव जीवन” की कीमत मरे हुए लोगों की संख्या से नहीं, बल्कि उनके ऊपर खर्च होने वाले मुआवजे की सीमा से तय होती है।
सरकार आज भी उसी रात को याद करती है, लेकिन याद करना और समझना दोनों में फर्क होता है। याद तो कैलेण्डर भी कर लेता है समझने का काम सिर्फ इंसानों का होता है, और अफसोस यह कि सत्ता ने हमेशा यह सिद्ध किया है कि इंसान होना उसके एजेंडा में कभी शामिल नहीं था।
वो रात जब गैस ने भोपाल की नींद लूटी, तो उसका असर केवल उन गलियों में नहीं था जहाँ लोग गिरे पड़े थे। हवा में गूंजती चीखें पूरे देश ने सुनी थीं, लेकिन कार्रवाई सिर्फ कागजों पर हुई। कागजों पर ही जांच, कागजों पर ही शिकायत, कागजों पर ही केस और अंत में कागजों पर ही इंसाफ। इतना कागज़ कि पूरा शहर ढक जाए, पर इतनी सच्चाई नहीं कि एक गुनाहगार धर ली जाए।
सरकारी मशीनरी की परतों में वह रात आज भी रेंगती है। फर्क सिर्फ इतना है कि तब लोग जान बचाने के लिए भाग रहे थे, और अब नेता बयान बचाने के लिए। मुआवजे ने सरकारों को सुविधा दी दर्द को पैसे में बदलो, और फिर भूल जाओ। यह पहली बार था जब भारत में यह सूत्र पूरी तरह लागू हुआ कि “हर बड़े अपराध का इलाज बड़ा बजट होता है।” जनता के आँसू पोछने के लिए नहीं, बल्कि उनकी शिकायत शांत कराने के लिए।
दो-दो पीढ़ियों ने इस त्रासदी की कीमत चुकाई है। आज भी नवजात बच्चों की आँखों में वह रात बसती है, जिसकी पूरी कहानी उन्होंने कभी नहीं सुनी, पर जिसके दुष्परिणाम उनके शरीर में लिखे हुए हैं। मेडिकल रिपोर्टें आज भी उस रात की गवाही देती हैं, पर अफसरों की मेज़ों पर वे सिर्फ संख्या बनकर रह जाती हैं “इतने प्रतिशत प्रभावित”, “इतने केस दर्ज”, “इतनी सहायता दी गई।” हर रिपोर्ट में आंकड़े बदलते हैं, पर इंसाफ का प्रतिशत कभी बढ़ता नहीं हमेशा वही शून्य।
सरकारें बदलती रहीं, पर उनका व्यवहार नहीं। हर सरकार ने अपनी तरह से त्रासदी को भुनाया। किसी ने इमारतें बनाईं, किसी ने इलाज के दावे किए, किसी ने योजनाओं की फाइलें खोलीं, और किसी ने सालाना श्रद्धांजलि को ट्विटर पोस्ट तक सीमित कर दिया। बाकी में जनता को इतना भरोसा दिला दिया गया कि “अब सरकार जागरूक है” जैसे जागरूकता गैस का फिल्टर हो और प्रशासन उसकी हवा साफ कर सकता हो।
सबसे मजेदार, और सबसे दुखद बात यह है कि अपराध की चिमनी आज भी जस की तस खड़ी है, सुरक्षा के घेरे के साथ, बिल्कुल ऐसे जैसे किसी राष्ट्रीय धरोहर की रक्षा की जा रही हो। दुनिया के बड़े देशों में ऐसा होता? शायद नहीं। पर भारत में यह संभव है क्योंकि यहाँ अपराध और अफसरशाही का रिश्ता बहुत पुराना है। अपराधी बदल सकते हैं, अपराध बदल सकते हैं, पर फाइलें कभी नहीं बदलतीं।
जिस कंपनी ने जहर फैलाया था, उसके मालिक दुनिया घूमते रहे, और यहाँ लोग अपने बच्चों को लेकर अस्पतालों की लाइन में लगते रहे। सरकार ने विदेशी अपराधी को पकड़ने की कोशिश भी उतनी ही मजबूती से की, जितनी मजबूती से वह कभी गड्ढे में गिरकर उठती है। नतीजा? एक भी व्यक्ति को वह सजा नहीं मिली जो इतिहास को संतोष दे सके।
ये भी एक कमाल की विडंबना है भोपाल गैस त्रासदी दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना मानी जाती है, पर उसके गुनाहगार दुनिया के सबसे सुरक्षित लोग निकले। और पीड़ित? वे दुनिया के सबसे अधिक कागजी-प्रक्रियाओं में फंसे लोग बन गए।
हमारे देश में न्यायालय भी कभी-कभी इतनी लंबी सांस लेते हैं कि आम आदमी की सांसें साथ नहीं दे पातीं। केस चलता रहा, तारीखें पड़ती रहीं, गवाह बूढ़े होते गए, सबूत धूल खाते गए, और अंत में सरकारें इतनी थक गईं कि फाइलों पर जमी धूल ही उनके काम का प्रमाण बन गई। इस देश में इंसाफ हमेशा लेट-लतीफ रहा है इतना लेट कि कई बार इंसाफ पहुंचते-पहुंचते लोग ही पहुंच में नहीं रहते।
भोपाल की गलियों में जो बच्चे उस रात सोते-सोते मर गए, उनका आज तक कोई जिक्र नहीं। अखबारों में उनकी तस्वीरें थीं, पर इतिहास में उनका नाम नहीं। और सरकारों की नीतियाँ? वे हमेशा त्रासदी की अनिवार्य याद दिलातीं रहीं, लेकिन समाधान की तरह कभी नहीं उभर सकीं।
आप देखिए, जिस देश में त्रासदी की चिमनी संग्रहालय बन जाती है, वहाँ त्रासदी एक इतिहास नहीं एक सरकारी प्रोजेक्ट बन जाती है। भोपाल में जो स्मारक बनाए गए, जो भवन उठाए गए, जो योजनाएँ शुरू हुईं उनमें से अधिकांश का लक्ष्य दर्द मिटाना नहीं, बल्कि यह दिखाना रहा कि दर्द मिटाने का प्रयास हो रहा है। और भारत में प्रयास ही पर्याप्त माना जाता है, चाहे परिणाम जमीन पर आए या नहीं।
नई पीढ़ियाँ आज भी उस रात का ऋण चुका रही हैं फेफड़ों में कमजोरी, आँखों में जलन, शरीर के भीतर विष के धीमे असर, और मानसिक भय। सरकारें दावा करती हैं कि परिस्थितियाँ सुधर गई हैं, पर आंकड़े बताते हैं कि आज भी हजारों लोग उसी गैस के बादजनित रोगों से जूझ रहे हैं। कुछ बच्चे तो ऐसे हैं जिन्हें पता भी नहीं कि उनकी बीमारी का असली कारण क्या है क्योंकि वह रात तो वे पैदा होने से पहले देख चुके थे, अपने माता-पिता की सांसों में।
भोपाल में इंसाफ आज भी एक खोई हुई परछाई की तरह है जिसे हर कोई देखना चाहता है, पर कोई पकड़ नहीं पाता। क्योंकि इंसाफ के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा हमेशा “सिस्टम” होता है। वही सिस्टम जो उस रात सोया था, और आज भी सोया हुआ है। फर्क सिर्फ इतना है कि तब उसने जनता को मरने दिया, और आज उसे भुलाने दिया।
हमारे देश की राजनीति में त्रासदी एक मंच है, और भोपाल उसका सबसे बड़ा सीन। हर सरकार यहाँ अपना संवाद बोलकर निकल जाती है कुछ वादे, कुछ सांत्वना, कुछ आँसू, और अपनी ही बनायी हुई रिपोर्टों का हवाला। पर सच यह है कि अगर सरकारें अपनी जिम्मेदारी निभातीं, तो आज भोपाल की त्रासदी दुनिया के सबसे बड़े इंसाफ के उदाहरणों में होती न कि सबसे बड़ी लापरवाही के।
हर साल दो और तीन दिसंबर आते हैं, और भोपाल फिर से तड़प उठता है। मोमबत्तियाँ जलती हैं, श्रद्धांजलि दी जाती है, अखबारों में दो कॉलम छपते हैं, और नेता कैमरे में भावुक दिखाई देते हैं। फिर रात ढलते ही सब कुछ सामान्य हो जाता है जैसे यह शहर त्रासदी नहीं, बल्कि किसी त्योहार का वार्षिक आयोजन मनाकर लौटा हो।
भूल जाने का ऐसा सामूहिक अभ्यास शायद ही कहीं देखने को मिले यह देश घटनाओं को नहीं, तारीखों को याद रखता है और तारीखें याद रखने से इंसाफ नहीं मिलता सिर्फ सोशल मीडिया पोस्ट मिलते हैं।
भोपाल की त्रासदी इस देश का आईना है और यह आईना हर साल दिखाता है कि सत्ता कितनी संवेदनहीन, न्याय कितना लाचार, और जनता कितनी मजबूर हो सकती है। पर सबसे बड़ा व्यंग्य यह है कि इस आईने को देखने की हिम्मत किसी में नहीँ। सब इसे देखकर भी अनदेखा कर देते हैं क्योंकि ज़हर अब गैस में नहीं, शासन की आदतों में घुल चुका है।
अगर इस देश ने उस रात से कुछ सीखा होता, तो आज उद्योगों में सुरक्षा बढ़ी होती, जिम्मेदारियाँ तय होतीं, और इंसाफ का रास्ता सीधा होता। पर हमने उल्टा किया गलतियों को महिमामंडित किया, अपराधियों को बचाया, और पीड़ितों को दफना दिया।
भोपाल की रात अब सिर्फ अतीत नहीं है वह वर्तमान भी है। क्योंकि जब तक इंसाफ नहीं मिलता, त्रासदी मरती नहीं। वह हर सांस के साथ जिंदा रहती है। और जब सरकारें सिर्फ मुआवजे में विकास ढूंढती हैं, तो समझ लीजिए कि इंसान की कीमत इस देश में अभी भी बहुत सस्ती है इतनी सस्ती कि एक रात की गैस हजारों की जिंदगी खरीद सकती है, और सरकारों की चुप्पी उस सौदे को वैध भी कर देती है।
*भोपाल आज भी पूछ रहा है? किसी ने हमारा गुनहगार देखा है? किसी ने न्याय की तस्वीर देखी है? किसी ने सरकारी वादों का अंजाम देखा है? पर सबकी आंखें बंद हैं और बंद आँखें कभी सच नहीं देखतीं।*